ऐतिसाहिक अध्ययन के श्रोतों के रूप में जातकों का मूल्यांकन ,शोध प्रबंध

ऐतिसाहिक  अध्ययन  के श्रोतों के रूप में  जातकों  का मूल्यांकन 
शोध प्रबंध ,सुनीता सिन्हा


विषय सूची 
                                                               पृष्ठ संख्या 
प्राक्कथन        :                                        ( i ) - ( iii ) 
प्रथम अध्याय : सामाजिक जीवन एवं जातक  ( 01 52 ) 
द्वितीय अध्याय : आर्थिक जीवन एवं जातक ( 53 97 ) 
तृतीय अध्याय : जातक में धर्म एवं दर्शन ( 98 - 121) 
चतुर्थ अध्याय : जातक में विहित शासन व्यवस्था (122 - 148) 
पचम अध्याय : शिक्षा , कला एवं विज्ञान  (149 - 165) 
उपसंहार : (166 - 174) 
सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची (175 - 182)

प्राक्कथन 
प्रस्तुत अध्ययन मोटा - मोटी जातकों पर आधारित है । इसमें भारत के सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक तथा प्रशासनीक विकास - कम की एक महत्वपूर्ण अवस्था का प्रमाणिक एवं रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है । यह युग अपनी अनेक विशेषताओं , जैसे बुद्ध द्वारा रूढ़ समाजिक प्रथाओं का विरोध एवं सामाजिक समता तथा दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास नवीन धर्म - सम्प्रदायों का उदय , सन्यास जीवन की व्यापकता , नगर जीवन का अभ्युदय , उद्योग - धंधों की प्रगति इत्यादि के कारण महत्वपूर्ण माना गया है । इस युग के सांस्कृतिक इतिहास पर कार्य भी पर्याप्त किए गए हैं । 
उपलब्ध ग्रन्थों में जातकों का अपेक्षित उपयोग नहीं करने के कारण तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन का सर्वागीण विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सका है । केवल समकालीन सूत्र साहित्य , जैन ग्रन्थों तथा धर्मशास्त्र में उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग किया गया है । जातक कालीन सांस्कृति जीवन के निष्पक्ष एवं पूर्ण विवरण के प्रस्तुतीकरण हेतु तत्कालीन जातक कथाओं में उपलब्ध सामग्री का समुचित उपयोग अनिवार्य होगा । इसके अभाव में इस युग के सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक एवं प्रशासनिक विशेषताओं का सही मूल्यांकण नहीं किया जा सकता । अतः प्रस्तुत अध्ययन इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है । 
किसी भी युग के सांस्कृतिक जीवन के विवरण के लिए कथा - साहित्य के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती । कहानियाँ समाज का प्रतिबिम्ब होती है । इस दृष्टिकोण से जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए जातको की बड़ी उपयोगिता है । खुददक - निकाय में समाविष्ट  547 कहानियों का संग्रह जातक है । जातक की कहानियाँ बुद्धकालीन समाज में प्रचलित थी । बौद्ध भिक्षुओं ने इन्हें भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनाओं से संबद्ध कर अपने उपदेशों के प्रचार योग्य बना लिया । कुछ कहानियाँ उनकी अपनी कल्पना की उपज भी होगी । ये कहानियाँ तत्कालीन समाज के विविध विषयों का प्रसंगवश उल्लेख देने के कारण इतिहासकार के लिए बहुमूल्य सामग्री प्रदान करती है ।
 जहाँ तक जातकों के रचनाकाल का प्रश्न है बुद्धकालीन संस्कृति का विवरण प्राप्त होने के कारण इन्हें इसी काल का मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है । कई जातकों को भारहुत तथा सांची की वदिकाओं तथा तोरणों में उत्कीर्ण किया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि ये इन कलाकृतियों के निर्माण के पूर्व ही समाज में प्रचलित थे । रिचार्ड फिक , रीस डेविड्स तथा बूलर आदि प्राध्य - विदों के मत में जातक तीसरी शताब्दी ई ० पू ० के जन - जीवन को प्रतिविम्बित करते हैं । यह तथ्य कदापि उपेक्षणीय नहीं है कि जातकों में तक्षशिला का उल्लेख एक ख्याति प्राप्त विद्या - केन्द्र के रूप में मिलता है । यद्यपि नन्द तथा मौर्य शासकों के समय पाटलिपुत्र मगध साम्राज्य की राजधानी तक बन गया था , फिर भी इसका उल्लेख जातकों में पाटलीग्राम मात्र के रूप में मिलता है । 
दूसरी ओर राजगृह का उल्लेख एक प्रमुख नगर के रूप में मिलता है । इन जातकों में वैशाली का वैभव तथा मिथिला की गरिमा भी न्यून नहीं है । अतः इन कहानियों में उस युग का वर्णन है जब पाटलिपुत्र को एक प्रमुख नगर का गौरव प्राप्त नहीं हुआ था । बिंबिसार , प्रसेनजित् तथा अजातशत्रु के उल्लेख हैं , पर नन्दा तथा मौर्यो के नहीं । इस तरह जातकों में ऐसे कई प्रमाण हैं , जिनकी बुद्धकालीन इतिहास के लिए उपयोगिता असंदिग्ध है । यह सत्य है कि कई कहानियों बुद्ध - पूर्व काल की है , किन्तु उनकी भी उपयोगिता में कमी नहीं आती है । जातकों के सम्बन्ध में जो भी विवाद हो परन्तु इस बात को स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि उनमें बुद्ध के जन्म के समय से लेकर प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व अथवा ईस्वी सन् तक के संस्कृति का विवरण उपलब्ध होता है । 
प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु व्याख्याता , एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के निर्देशन में लिखा गया है . जिन्होनें समय - समय पर मुझे आवश्यक निर्देश एवं सुझाव दिए । इन्हीं के स्नेह एवं संरक्षण में रहकर यह शोध - प्रबन्ध पूर्ण हो सका है । अतः इसके लिए मैं डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु जी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करती हूँ ।
मैं प्राचीन भारतीय एवं एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के विभागाध्यक्ष तथा शिक्षकों का आभारी हूँ , जिन्होनें इस शोध - प्रबन्ध के विषय में उचित परामर्श तथा सहयोग प्रदान किया । 
मैं अपने सम्बन्धियों का चिरऋणी हूँ , जिन्होनें समय - समय पर मुझे उचित सहयोग तथा सुझाव प्रदान किया । 
प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध के प्रणयन में अनेक विद्वानों के ग्रन्थों से यथेष्ट सहायता ली गई है । अतः मैं उन सभी विद्वानों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ . जिनके नाम शोध - प्रबन्ध में उल्लिखित हैं । 
सुनीता सिन्हा


प्रथम अध्याय 
सामाजिक जीवन एवं जातक
पेज १  वर्ण व्यवस्था : प्राचीन भारत की सामाजिक संरचना मूलतः जाति - व्यवस्था पर निर्भर है । जाति - व्यवस्था को हम भारतीय प्राचीन समाज की न्यष्टि कह सकते हैं । प्राचीन काल में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद ये चार वर्ण प्रमुख थे । ' इन चारों वर्षों में समान वर्ण के स्त्री , पुरूष से उत्पन्न सन्तान भी माता - पिता के ही वर्ण में अभिज्ञात होती थी । जन्मगत वर्ण और कर्मगत वर्ण की व्यवस्था आगे चलकर दृष्टिगत होती है । 
जातक युग में ब्राह्मणों का समाज में मुख्य स्थान था और यज्ञपुरोहित के रूप में उन्हें सभी सुविधाएं प्राप्त थी । उस समय समाज में दो तरह के ब्राह्मण थे 1 . 2 . शुद्ध तथा सांसारिक । शुद्ध ब्राह्मण वही होता था जो युवा होने पर उपाध्याय के पास जाकर वेदों का अध्ययन करता था , गृहस्थ जीवन बिताता था और जीवन के पश्चकाल में तपस्वी का जीवन व्यतीत करने के लिए अरण्यवास करता था । ब्राह्मण का यही सच्चा स्वरूप उस समय विद्यमान था किन्तु सभी ब्राह्मण ब्राह्मणत्व के यथोचित नियमों का परिपालन नहीं कर पाते थे , और यह स्वाभाविक भी है । जो ब्राह्मण सच्चे तथा तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे वे यज्ञ करते थे । जो ब्राह्मण सच्चे अर्थ में अपना शुद्ध जीवन व्यतीत करते थे उन्हें समाज में पूरी प्रतिष्ठा मिलती थी । यद्यपि जातकों में खस्तियों को ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक महत्ता दी गयी है तथापि ब्राह्मण धार्मिक होने के कारण पूज्य थे । ब्राह्मण को राजाओं तथा प्रजाओं की आरे से दान मिलता था । ब्राह्मण आदर के साथ भोजन के हेतु आमंत्रित भी किये जाते थे और तदुपरान्त उन्हें दक्षिणा दी जाती थी । 

पेज २  ब्राह्मण अजेय तबा अबध्य थे । वे कर मुक्त भी थे । 
जातकों में देशानुसार भी ब्राह्मणों के भेद किये गये हैं । कुरूपन्थाल के ब्राह्मण अपनी जाति तथा गौरव के प्रति अवस्थित रहते थे । सतधम्म जातक , मंगल जातक तथा महासुपिन जातक में उदीष्य ब्राह्मण की चर्चा आयी है जो अपने गौरव के प्रति निष्ठावान दृष्टिगत होते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर पश्चिम देशों में रहने वाले ब्राह्मण आचरण धर्म तथा शील की दृष्टि से पवित्र और श्रेष्ठ माने जाते थे और जो पूर्व देशों में रहते थे वे सांसारिक माने जाते थे क्योंकि वे ब्राह्मणोचित कर्मो की उदारता को विरहित रहते थे । 
सांसारिक ब्राह्मणों के स्वरूप का वर्णन हमें दस ब्राह्मण जातक में मिलता है । ' इस जातक में सांसारिक ब्राह्मणों के अनेक विध कर्तव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है - तिकिच्छकसमा , परिचारकसमा , निम्गाहकसमा . खानुपातकसमा , वाणिजकसमा , समा अम्मट्ठवेस्सेहि , गोधातकसमा , समागोपानसादेहि . जुद्धका , महामजनसमा । 
ब्राह्मणों के उपयुक्त कर्म वस्तुतः घृणित प्रतीत होते हैं और एवं विध कर्म करने वाले केवल जन्म से ब्राह्मण होने के कारण ब्राह्मण नहीं कहे जा सकते हैं । क्योंकि शीलवान बहुश्रुत और मैथुन धर्मविरहित ब्राह्मण ही ब्राह्मण की पदवी पाने का अधिकारी हो सकता है । 
महासुपिन जातक ' के अनुसार ब्राह्मण राजाओं के द्वारा यज्ञ कर्म सम्पादन के लिये आमंत्रित होते थे । जब कभी राजा दुःस्वप्न देखता था तो वह ब्राह्मण को बुलाता था । ब्राह्मण उसे सब्बचतुक्क यज्ञ करने के लिये उत्प्रेरित करते थे । जातको में ब्राह्मण सुपिनपाठक तथा भविष्यवक्ता के रूप में विशेषतः चित्रित किये गये है । ब्राह्मण नवजात शिशु के अंगलक्षणों को देखकर भूत भविष्य और वर्तमान में घटने वाली घटनाओं का न्यायिक कथन करते थे । 

पेज ३  उम्मदन्ती जातक में एवंविध ब्राह्मणों के स्वरूप का बोध होता है जो अपने कर्म में कुशल होते हैं । इसके अतिरिक्त भी ब्राह्मण जादूगर का कार्य करते थे । एक स्थान पर एक ब्राह्मणअसि की अच्छाई जानकर कहता है कि यह असि शुभ लक्षणों वाली है और यह भाग्यदायक है । दूसरी जगह हम उस ब्राह्मण का दर्शन पाते हैं जो मूषकों द्वारा भक्षित वस्त्रों का दुःस्वप्न देखता है । उस समय के ब्राह्मण नक्खरतयोग ' का अभ्यास करते थे जिन्हें ' मिच्छाजीवा ' की संज्ञा दी गयी है।उस समय के ब्राह्मण वैश्य कर्म भी करते थे जिसके अनेकशः उल्लेख जातकों में मिलते हैं । ब्राह्मण कृषि कर्म भी करते थे , जिन्हें कस्सक ब्राह्मण की संज्ञा दी गयी है । उरग जातक " में यह उल्लेख आया है कि एक ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ खेत में जाता है और भूमि कर्षण करता है जबकि उसका पुत्र तम्बाकू को संचित कर जलाता है । एक दूसरे जातक " में एक दरिद्र ब्राह्मण एक वृषभ के कालकवलित हो जाने के कारण कृषि कर्म में अक्षम हो जाता है । कभी - कभी ये कस्सक ब्राह्मण अधिक समृद्ध हो जाते थे और उनके पास 1000 करिस जमीन तक हो जाती थी । जातकों में महाशाल ब्राह्मण का बहुधा उल्लेख आया है । लेकिन ब्राह्मणों को इतनी रानृद्धि कहां से आ जाती थी-- इसका निर्धारण करना असंभव है । ब्राह्मण वाणिज्य कर्म भी करते थे । ये कभी साधारण विकेता के रूप में तो कभी बहुत बड़े सेठ के रूप में होते थे । ब्राह्मण लोग शिकारी , " तक्षक , " गडेरिया . " धानुष्क आदि के कर्म भी करते थे । इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण लोग अन्य लोगों की भाति अपनी जीविका के निर्वहण के लिये जो व्यवसाय चाहते थे , अपना लेते थे । ऐसा लगता है कि उस समय के ब्राह्मण अपनी वंशगत महिमा को भूल चुके थे औरब्राह्मणोचित यज्ञीय एवं अध्यापकीय कर्मों को छोड़कर जीवन यापन के लिये कोई भी कर्म कर सकते थे , जैसा कि जातकों से पूर्णतया स्पष्ट है । 

पेज ४  वैदिक साहित्य तथा श्रेष्य साहिम्य में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि रहा है , किन्तु बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों का स्थान ही सर्वोपरि दृष्टिगत होता है । क्षत्रिय सर्वथा अपनी श्रेष्ठता के उद्घोष के लिये तत्पर रहते थे । क्षत्रियों की कोई निम्नजातीय व्यक्ति नाम लेकर नहीं बुलाता था । गंगमाल जातक में गंगमाल नामक नापित उदय को कुलनाम से जब पुकारता है तो उसकी मां उस पर संकुद्ध हो जाती है । और कहती है कि इस निग्नकुलीन नापित को अपने अस्तित्व का भी पता नहीं है । यह पृथ्वंश्वर क्षत्रियवंशोत्पन्न पुत्र को ब्रह्मवर्त कहता है । क्षत्रिय ब्राह्मणों की अपेक्षा अपने जातीय गौरव के प्रति पूर्णतः सतर्क रहते थे । उदाहरण के लिये राजा अरिन्दम अपने पुरोहित पुत्र को स्पंनजन्मा ब्राह्मण कहता है -ब्राह्मणों हीनजत्थो । " और हीनजत्थो और अपने को असंभिन्नखत्तियवसजातो कहता है । क्षत्रिय अपनी जातीय शुद्धता के प्रति विशेष अवहित रहते थे , क्योंकि क्षत्रिय और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न पुत्र सच्चा क्षत्रिय नहीं हो सकता था । जाति के सम्मान में भी क्षत्रिय का नाम सर्वप्रथम जातकों में आता है । यथा - खत्तिया ब्राह्मण , वेस्सा सुद्धता चण्डाल - पुक्कसा । " इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध लेखक ब्राह्मणों के प्रति कुत्सित भावना रखते थे और शासक वर्ग क्षत्रियों के प्रति उत्कृष्ट भावना का परिज्ञापन करते थे । वैदिक युग से प्रवर्तित महाभारत युग तक ब्राह्मण का स्वरूप अक्षुण्ण रहा , किन्तु जातक युग में ब्राह्मण के स्वरूप में अस्पृश्य परिर्वतन हो गया । ब्राह्मण वर्ण को पतित और नीच कल्प जाने लगा तथा क्षत्रिय वर्ण को सर्वश्रेष्ठ वर्ण की संज्ञा दी गयी ।

पेज ५ जातकों में ही नहीं समस्त बौद्ध ग्रन्थों में ब्राह्मणों के प्रति प्रतिहिंसा घृणा की भावना पराकाष्ठा पर पहुंच दृष्टिगत होती है । ऐसी प्रतीति होता है कि ब्राह्मण - क्षत्रिय संघर्ष में ब्राह्मणों की विजय ने क्षत्रियों के मन में कुत्सित प्रतिहिंसा की भयावह अग्नि प्रज्वलित कर दी थी । साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों में बौद्धों का पूर्णतः विरोध किया था , जिसे परिणामस्वरूप बौद्धे का ऐसा आकोश सर्वत्र दृष्टिगत होता है । अतः निःशंकरतः कहा जा सकता है ज्ञान और परमशिव निर्वाण का अधिगम करके भी बुद्ध इात्मक भावना का सर्वथा परित्याग नहीं कर पाये थे । मतमस्तक जातक , नंगुट्ठ जातक , कोसिय जातक , राध जातक , सतधम्म जातक , उच्छिट्ठभस्त जातक , रूहक जातक , चुल्लिघनु जातक , सत्तुभत्त जातक , उद्धालक जातक तथा महाकपि जातक में ब्राह्मणों के प्रति आकोश की भावना असीम हो गयी है । ब्राह्मणों के सम्बन्ध में ऐसी अनेक गाथाएँ जातकों में निबद्ध की गयी है , जिनसे इस वण की हीनता व्यक्त होती है । उस काल में ऐसा कोई कुकर्म या दुष्कर्म नहीं था , जो ब्राह्मणों के द्वारा न किया गया हो । किन्तु क्षत्रिय - वर्ण के सम्बन्ध में ऐसी कोई गाथा जातकों में दृष्टिगत नहीं होती जिससे उस वर्ण की अधोभावना का प्रकटीकरण हो सके । जातकों में ब्राह्मणों को अधः पतित प्रमाणित किया गया है । जातकों में वस्तुतः ब्राह्मणों के उस महत्व को निर्मूलित किया जा रहा था जो महत्व इस वर्ण को वैदिक काल से अवाप्त था और जिसके संरक्षण में ब्राह्मण तत्पर थे । किन्तु जातक युग में ऐसे भी ब्राह्मण थे , जिनका विरोध करके बांद्धों का जीना असम्भव था । अतः शील रहित ब्राह्मणों को लेकर ही बौद्धों ने ब्राह्मणों पर आकमण किया । शीलवान एवं आचरण सम्पन्न ब्राह्मण को ही जातक युग में सम्मान मिला है । आचाररहित ब्राह्मण के ब्राह्मयत्व का पूरा विरोध जातकों में मिलता है । सुनख जातक में तो ब्राह्मण को कुत्तो से भी निकृष्ट कहा है ।


किसी भी युग के सांस्कृतिक जीवन के विवरण के लिए कथा - साहित्य के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती । कहानियाँ समाज का प्रतिबिम्ब होती है । इस दृष्टिकोण से जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए जातको की बड़ी उपयोगिता है । खुददक - निकाय में समाविष्ट 547 कहानियों का संग्रह जातक है । जातक की कहानियाँ बुद्धकालीन समाज में प्रचलित थी । बौद्ध भिक्षुओं ने इन्हें भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनाओं से संबद्ध कर अपने उपदेशों के प्रचार योग्य बना लिया ।
एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के निर्देशन में लिखा गया है . जिन्होनें समय - समय पर मुझे आवश्यक निर्देश एवं सुझाव दिए । इन्हीं के स्नेह एवं संरक्षण में रहकर यह शोध - प्रबन्ध पूर्ण हो सका है । अतः इसके लिए मैं डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु जी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करती हूँ । मैं प्राचीन भारतीय एवं
प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु व्याख्याता , प्राचीन भारतीय एवं एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के विभागाध्यक्ष तथा शिक्षकों का आभारी हूँ , जिन्होनें इस शोध - प्रबन्ध के विषय में उचित परामर्श तथा सहयोग प्रदान किया । मैं अपने सम्बन्धियों का चिरऋणी हूँ , जिन्होनें समय - समय पर मुझे उचित सहयोग तथा सुझाव प्रदान किया । प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध के प्रणयन में अनेक विद्वानों के ग्रन्थों से यथेष्ट सहायता ली गई है । अतः मैं उन सभी विद्वानों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ . जिनके नाम शोध - प्रबन्ध में उल्लिखित हैं । 
सुनीता सिन्हा ( सुनीता सिन्हा )किसी भी युग के सांस्कृतिक जीवन के विवरण के लिए कथा - साहित्य के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती । कहानियाँ समाज का प्रतिबिम्ब होती है । इस दृष्टिकोण से जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए जातको की बड़ी उपयोगिता है । खुददक - निकाय में समाविष्ट 547 कहानियों का संग्रह जातक है । जातक की कहानियाँ बुद्धकालीन समाज में प्रचलित थी । बौद्ध भिक्षुओं ने इन्हें भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनाओं से संबद्ध कर अपने उपदेशों के प्रचार योग्य बना लिया ।
एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के निर्देशन में लिखा गया है . जिन्होनें समय - समय पर मुझे आवश्यक निर्देश एवं सुझाव दिए । इन्हीं के स्नेह एवं संरक्षण में रहकर यह शोध - प्रबन्ध पूर्ण हो सका है । अतः इसके लिए मैं डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु जी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करती हूँ । मैं प्राचीन भारतीय एवं
प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध डा ० विनोद कुमार यादवेन्दु व्याख्याता , प्राचीन भारतीय एवं एशियाई अध्ययन विभाग , मगध विश्वविद्यालय , बोधगया के विभागाध्यक्ष तथा शिक्षकों का आभारी हूँ , जिन्होनें इस शोध - प्रबन्ध के विषय में उचित परामर्श तथा सहयोग प्रदान किया । मैं अपने सम्बन्धियों का चिरऋणी हूँ , जिन्होनें समय - समय पर मुझे उचित सहयोग तथा सुझाव प्रदान किया । प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध के प्रणयन में अनेक विद्वानों के ग्रन्थों से यथेष्ट सहायता ली गई है । अतः मैं उन सभी विद्वानों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ . जिनके नाम शोध - प्रबन्ध में उल्लिखित हैं । 
सुनीता सिन्हा ( सुनीता सिन्हा )


 


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