जातक युग में नारी का स्थान : 2

 

जातक युग में  नारी का स्थान : 
शोध निबंध,डॉ. सुनीता सिन्हा.
शिक्षिका,डी वी,पब्लिक स्कूल ,बिहारशरीफ़, नालंदा. 




जातक युग में  नारी का स्थान : 

नारी का स्थान गार्हस्थ निर्वाह में महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट रहा है नारी तथा पुरुष की एकात्मक भावना में ही गृहस्थ का संसार है पुरुष तथा नारी के कर्म क्षेत्र में अनेक प्रकार की भिन्नता होते हुए भी एक के कर्म में दूसरे की सहायता को विशेष रूप से स्वीकार किया गया है वैदिक युग में नारियों का स्थान महत्वपूर्ण तथा गौरवान्वित रहा है , किन्तु जातक युग में किन परिस्थितियों , घटनाओं और कारणों से इतना बदल गया कि नारियों को गर्हित दृष्टि से देखा जाने लगा  

शैशव काल में नारियों का जीवन पितृ - गृह में बीतता था हिन्दू समाज में आर्थिक सामाजिक कारणों से पुत्र की तरह पुत्री वरदान स्वरूप नहीं समझी जाती थी क्योंकि तो ये वृद्धावस्था में पिता का भरण पोषण ही करती थी और पैतृक ऋण से उद्धार ही कर सकती थी जातक युग में पुत्र तथा पुत्री का लालन पालन समान रूप से होता था जैसा कि हम वेस्सन्तर जातक में जाति तथा कयहाजिता को समान स्नेह पाते देखते हैं  
नारी शिक्षा जातक युग में नहीं के बराबर प्रवर्तित थी तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय में लड़के ही शिक्षा पाते थे - लड़कियों का वहाँ प्रवेश नहीं था हो सकता है लड़कियां घर पर ही शिक्षा पाती होगी [1] लेकिन जातक में ज्ञानवान एवं पण्डिता स्त्रियों के उदाहरण मिलते हैं जिनमें अमरा तथा उदुम्बरा का नाम उल्लेख्य है [2] संगीत तथा नृत्य में स्त्रियों को कुशल कहा गया है जहाँ कहीं भी स्त्रियों का उल्लेख हुआ है उन्हें नृत्य गीतों में कुशल कहा गया है कुसला नच्चगीतेषु [3]
जातकों में विवाह की रीत :  बाल विवाह की चर्चा जातकों में नहीं है प्रायः सोलह वर्ष की अवस्था विवाह के योग्य समझी जाती थी  अपवाद स्वरूप बीस वर्ष की अवस्था तक स्त्रियां अविवाहित रहती थीं सामान्यतः सोलह वर्ष की अवस्था में लड़कियों का विवाह हो जाता था किन्तु कभी - कभी वे अपतिका कुमारिका रहने के लिए बाध्य की जाती थीं [4]तुल्यवय वालों के साथ ही विवाह होता था  
बहन के साथ विवाह की रीत :बहन के साथ भी उस समय विवाह होता था उदय अपने वैमातिक बहन से विवाह करता है [5] फुफेरी बहन के साथ विवाह जातक युग में विहित था  असिलखण तथा मुदुपाणि जातक में देखते हैं कि एक राजा अपनी लड़की का विवाह अपने भगिनेय से कर देता है मामा की बेटी  तथा फुआ के लड़के से भी विवाह सामान्य रूप से होता था  
चुल्लपदुम जातक में एक कथा आयी है कि पद्यमकुमार की दुराचारिणी स्त्री ने अपने पति को पर्वत से ढकेल लंगडे को ले पतिव्रता स्त्री की तरह भिक्षा मांगती थी  यदि उससे कोई पूछता कि यह तेरा क्या लगता है
तो वह उत्तर देती ----मैं इसके मामा की लड़की हूँ और यह मेरी बुआ का लड़का है [6]  
राजा वेस्सम्तर भी अपने मामा की लड़की से विवाहा था।[7] 
मौसी की लड़की तथा पिता के भाई के लड़के के साथ भी विवाह जातक युग में प्रवर्तित था [8]
जातक युग में विवाह के तीन प्रकार वर्णित है ब्राहा,स्वंयम्बर तथा गान्धर्व विधियों से ही विवाह होता था  
ब्राह्म विवाह : विवाह ब्राह्म  वर की विद्या , बुद्धि , वंश आदि के बारे में विशेष रूप से  पता लगाकर , सवंशज , सच्चरित्रवर को कन्या का संरक्षक यदि कन्या प्रदान करे , वह विवाह ब्राह्म होता है
स्वंयबरविवाह : जिसमें कन्या स्वंय अपनी इच्छा के अनुकूल वर का चयन कर विवाह करे उसे स्वंयबर कहते हैं वर तथा कन्या के परस्पर प्रणय के परिणाम स्वरूप जो विवाह सम्पादित होता है उसका नाम गान्धर्व विवाह है जातकों में स्वयंबर का विशेष उल्लेख मिलता है सोलह तथा बीस वर्ष की अवस्था हो जाने पर लड़कियां स्वेच्छया खुले स्वंयबर में अपने पति का चुनाव करती थीं  
कुणाल जातक[9] में राजकुमारी कयहा के स्वंयबर विवाह का उल्लेख मिलता है स्वंयबर के लिये कयहा के पिता उद्घोष करते हैं और कयहा के इच्छुक वरों का समूह उपस्थित होता है कयहा फूलों की माला लेकर गवाक्ष से राजा पाण्डु के पाँच पुत्रों को देखकर प्रेम - विहवल हो जाती है और फूलों की माला उनके गले में फेंक देती है तत्पश्चात् वह अपनी मां से कहती है कि मैनें अपने अनुरूप पतियों का चुनाव कर लिया उसे अपने पतियों के साथ विवाह करने की आज्ञा दे दी जाती है  
यह प्रसंग वस्तुतः द्रौपदी ( कृष्णा ) के स्वयंबर का स्मरण दिलाता है जो महाभारत में वर्णित है  कुलावक जातक में भी हम पाते हैं कि असुर राजा वेपचिस्तिय की पुत्री सुजाता अपने अन्तःकरण से स्वंयबर में पति का वरण करती है [10] नागकन्याइरन्दति अपने पिता की इच्छा से अपने योग्य पति के वरण के लिये हिमालय प्रदेश में शोभव एवं सुगन्धित पुष्पों का संचयन कर पुष्प - संस्तार की रचना करती है और मधुर नृत्य गीतादि से पुण्णक यज्ञ को प्राप्त करती है [11]
उपयुक्त उदाहरणों से स्वंयबर की पद्धति का पूर्णतः सत्यापन नहीं होता और उसके अस्तित्व का ही संधारण होता है स्वयम्बर की प्रथा प्रयोग पुरस्सृत नहीं थी यद्यपि इसका आदर्श एवं शोभ संस्मार्य है जातक काल में यह प्रथा अपवाद रूप में प्रचलित थी पुत्रियाँ पिता की आज्ञा पाकर ही इस विधि से अपनी इच्छा के अनुरूप पति का वरण करती थीं जो वरदान रूप में मान्य था
गन्धर्व विवाह : गन्धर्व विवाह की रीति भी जातक युग में प्रचलित थी इस विवाह में दुल्हा तथा दुल्हीन अपनी इच्छा से अपने विवाह का कृत्य सम्पन्न करते थे जिसमें विवाहोत्सव नगण्य था पिता की आज्ञा इसमें आवश्यक नहीं थी  
कट्ठहपरि जातक में यह कथा मिलती है कि एक राजा अपने पमदवन में गया और वहां प्रसन्नमना एक स्त्री को गाते तथा लड़की चुनते देख उस पर आसक्त हो गया कालकम से वह स्त्री गर्भवती हो गयी राजा ने उसे अपनी मुद्रिका दी और कहा -- यदि लड़की हो तो इस मुद्रिका को उसके लालन पालन में खर्च करो और यदि लड़का हो तो उसे मेरे पास लाओ अन्ततः वह स्त्री महारानी बनी और उसका लड़का उपराजा बना [12] यह कथा भी दुष्यन्त तथा शकुन्तला के उपाख्यान का स्मरण दिलाती है  
वीणाथूण जातक में भी हम गन्धर्व विवाह का उल्लेख पाते हैं  [13] महाउम्मग जातक में महोवध अपने लिये स्वंय स्त्री की खोज में जाता है और अन्ततः अमरा नामक लड़की के साथ अपना परिणय सम्बन्ध स्थापित कर उसे अपने घर ले आता है  [14]
अभिसारिका : जातकों में अभिसारिका नारियों की भी चर्चा मिलती है एक उच्च कुल की जिससे यह युवती उद्यान में आम चुराने के अभियोग पर शपथ खाना नहीं चाहती -- पता चलता है कि वह प्रेमी के लिये संकेत स्थल पर अभिसारिका के रूप में आयी हुई थी [15]
रमणशीला अभिसारिकायें अपनी यौन - भावना की संतृप्ति के लिये कुन्जों तथा उद्यानों में जाकर पहले से ही जाकर ठहरी रहती थी और निश्चित समय पर रमण करने वाला व्यक्ति आकर अपनी मनोभावना की पूर्ति करता था जो राजा विजित होता था उसकी स्त्री को जेता ( जयी राजा ) लाकर अपनी पत्नी बना लेता था  [16] तस्करों के द्वारा अपहृत बालिकाओं को भी राजा अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेता था [17]
जातक में जाति को परिष्कृत रखने के लिये सभान जाति तथा समान व्यवसाय करने वालों के साथ ही विवाह होता था अपने से निम्न कुल वालों के साथ विवाह नहीं किया जाता था [18] अनुसोचिय जातक में एक ब्राह्मण अपने लड़के के विवाह के लिये ब्राह्मण कुमारी को लाने की आज्ञा देता है ' ब्राह्मणकुमारिकं आनेथा ' | [19] सदिसा भरिया ' की कहावत गाथाओं में प्रायः प्राप्त होती है [20] किन्तु इसके अपवाद भी मिलते हैं उदाहरण के लिये सेनापति अहिपारक ने एक की देशना देता है [21] 
बहुविवाह : अपने पतिगृह में स्त्रियों की स्थिति क्या थी इसका उल्लेख भी आवश्यक है सामान्यतया एक व्यक्ति एक स्त्री रखता था राजकीय या धनी परिवार के लोग एक से अधिक स्त्री रखते थे राजकुमार लोग प्रायः एक से अधिक स्त्री रखते थे सपत्नियों में कलह भी होता था लेकिन सुरूचि राजा के पास 16 हजार स्त्रियां थीं किन्तु उनमें परस्पर प्रेम - भावना बनी रहती थी और सभी राजा के प्रिय थीं [22]  सपत्नियों का क्रोध असहय था जैसा कि भूरिदत्त जातक में कहा गया है  
जातकों में बहु विवाह का विरल उल्लेख मिलता है कुमारी कयहा ने बहु विवाह किया था किन्तु यह जातक कालीन प्रथा नहीं थी  महाभारत काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी
पुनर्विवाह का प्रचलन भी जातकों में उल्लेख प्राप्त होता है  रूहक जातक [23] में एक ब्राह्मण अपनी पहली स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्री से विवाह कर लेता है  
तक्कस जातक [24] में हम पाते हैं कि एक युवा वसिट्ठक जिसने वृद्धावस्था में अपने पिता की सेवा की - उसकी पत्नी उसे पितृ - सेवा करने को मना किया, क्योंकि वह वृद्ध व्यक्ति को घर में देखना नहीं चाहती थी वसिट्ठक ने अपनी पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया और कहा -- ' इतो पत्थाय इमं गहं मा पाविसि वासिट्ठक की पत्नी प्रतिवेशी के घर में कुछ दिनों तक रही, किन्तु अन्ततः पुनः वह अपने पति के घर चली गयी
तलाक की प्रथा भी उस समय वर्तमान थी स्त्री तथा पुरूष दोनों एक दूसरे को किसी कारण वशर्त छोड़ देते थे प्रभावती कहती है -- मैं अपने इस कुरूप पति के साथ क्या करूँ? यदि मैं जीवित रही तो दूसरा पति खोजूंगीं [25] 
पत्नी की स्थिति जातकों में सम्मानजनक थी आदर्श पत्नी के लिये सध्वा .तुल्यवय ,आज्ञाकारी , प्रियंवदा आदि गुणों का होना अपेक्षित था सद्गुणों से समुपेत पत्नी सामाजिक दृष्टि से श्रेष्ठ होती थी सामान्यतया धनी व्यक्तियों के लिये इस उपयोग की वस्तु रह गयी थी और संभवतः उसकी स्थिति पदाचारिका की तरह थीं  
ओरोधा :  पर्दा प्रथा स्त्रियां जातक युग में परदों में रहती थीं जिसके लिये ' ओरोधा ' शब्द प्राप्त होता है सामान्यतः रानियों तथा राजकुमारियों तथा श्रेष्ठ जनों की लड़कियां ही प्रतिछन्नयानों में जाया करती थीं [26] लेकिन यह कोई कठिन नियम नहीं था हम यह देखते हैं कि रानियां महलों में मुक्त विहार करती हुई अमात्यों से बात करती है [27] सामान्यतः स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता थी वे आम सभा में आनन्दोपभोग करती थी [28] 
पुत्रवधू उस समय आज की तरह परदे में नहीं रहती थी अपितु अपने से बड़ों से,ससुर आदि से बात करती थी [29] पति पत्नी के साथ स्वछन्द रूप से बाजार जाते थे [30] 
सामाजिक उत्सवों में स्त्रियां : के अवसर पर भी स्त्रियां घूमती थीं जैसा कि हम एक स्त्री को अपने पति से यह प्रस्ताव करते देखते हैं कि  मेरी इच्छा है कि केसर के रंग का एक वस्त्र  पहन तेरे गले से मिल कार्मिक रात्रि के उत्सव में विचरण करूँ। [31] लेकिन स्त्रियों को सामान्यतः मुक्त विहार करने की पूर्ण छूट नहीं थी वे पुरूषों की तरह मुक्त तथा स्वछन्द नहीं थी [32] स्त्रियों को भीरू जाति कहा गया है [33] 
नारी के प्रसाधन तथा साज श्रृंगार  : जातक युग में नारी के जीवन में प्रसाधन का महत्वपूर्ण स्थान था साधारणतया कहा जा सकता है कि आकर्षक एवं मनोज्ञ वेश - भूषा , प्रसाधन तथा अलंकरण तत्कालीन नारी जीवन का अविभाज्य अंग था प्रसाधन में अलंकारों का ही प्रयोग पर्याप्त नहीं था अपितु अलंकारों के साथ ही वस्त्र , विलोपन एवं माल्याभरणों का प्रयोग आवश्यक था स्त्रियां अपने सहज सुन्दर अंगों को शोभन वस्त्रों एवं अलंकरणों से सुसज्जित कर रमणीय बनाती थीं  
प्रसाधनों में अलंकार , सुन्दर वस्त्र , माला तथा चन्दन प्रमुख थे स्त्रियां सुन्दर सूती तथा रेशमी वस्त्र पहनती थीं  [34] काशी के बने वस्त्र प्रसाधन के साधन की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे विविध अलंकारों में स्त्रियां मोतियों के मणिकुंडल रत्न मणिकुंडल , माला , स्वर्णहार , कुंडल , केयूर पालि - पादक तथा स्वर्ण मेखला पहनती थीं [35] पैरों में पक्षियों की तरह आवाज करने वाली चिरीटिका पहनती थीं [36]  
स्त्रियां विलेपनों से अपने को सजाती थीं तेल तथा चन्दन से केशों को तथा अन्य अंगों को सम्पुष्ट करती थीं [37] स्त्रियां अपने केश को जूडें के रूप में बाधती थीं और उसे विविध पुष्प मालाओं से अलंकृत करती थीं [38] और चरणों में महावर लगाती थीं  [39] स्त्रियां हाथी दन्त से निर्मित दर्पण में मुख देख कर श्रृंगार करती थी  [40] स्त्रियां चरण पादुकायें भी पहनती थीं  
उद्यमी महिलाएं : जीवन - निर्वाह के लिये अपने जातक युग की स्त्रियां अनेक प्रकार के उद्योगों में भी लगी रहती थीं राजकीय घराने तथा उच्चवर्गीय स्त्रियों को छोड़कर सामान्य घर की स्त्रियां जीविका के लिये कार्य करती थीं गांवों में कृषकों की स्त्रियां खेतों की रखवाली तथा सूत काटने तथा बुनने का कार्य करती थी।[41] अन्य प्रकार के उद्योग में भी स्त्रियां लगी होती थीं  
फूल बेचने वाली लड़कियां फूलों से बनी वस्तुओं का विक्रय करती थीं [42] गरीब की स्त्रियां परिचारिका[43] , दासी [44] , धात्री [45] का कार्य करती थीं दासियों को नहलाने , धुलाने तथा सज्जित करने का काम करना पड़ता था उन्हें यातनाएं भी सहनी पड़ती थीं [46]
रूपाजीवा : समाज में स्त्रियां अपनी जीविका के लिये रूपाजीवा बन जाती थीं अतः कहा जा सकता है कि जातक युग में नारी समाज में आजीविकोपार्जन करने वाला द्वितीय वर्ग गणिका का था गणिकाएं नृत्य गीत तथा वाद्य में दक्ष होती थीं गणिकाओं की आय का प्रमुख साधन उसका शुल्क था वे अपने पास आने वाले व्यक्ति से निर्धारित शुल्क लिया करती थीं  
एक गणिका पहले एक दूसरे से शुल्क लेकर बिना उसका काम किये दूसरे से नहीं लेती थी इसलिये उसे बहुत शुल्क प्राप्त होता था अब अपने धर्म को छोड़ एक से शुल्क ले , बिना उसका काम किये दूसरे से लेती है पहले को संभोगावसर देकर दूसरे को देती है इसलिये प्रभूत शुल्क नहीं पाती उसके पास कोई जाता भी नहीं था [47] 
वण्णादासी ने एक युवक से एक सहस्त्र लिया , किन्तु वह युवक तीन वर्ष तक प्रत्यावर्तित नहीं हुआ उसने अपने शील के भंग होने के कारण तीन वर्ष तक किसी दूसरे व्यक्ति से पान तक नहीं लिया कमशः जब वह अति दरिद्र हो गयी , तब सोचने लगी मुझें सहस्त्र देकर गया आदमी तीन वर्ष तक नहीं आया मैं अति दरिद्र हो गयी हूँ , जीवन यापन नहीं कर सकती हूँ अब मुद्दों न्यायाधीश अमात्य के पास जाकर खर्चा लेना चाहिये वह न्यायाधीश पास जब गयी तब उसे पूर्वोक्ति पेशा छोड़ देने की अनुज्ञा मिली  [48] 
उपयुक्त दोनों उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि गणिकाएं भी मर्यादित रहती थीं कुरूधम्म जातक के अनुसार गणिकाएं भी पंचशील का पालन करती थीं   
श्यामा नाम की गणिका वाराणसी की थी उसका शुल्क सहस्त्र था वह राजा की प्रिया और पांच सौ सुन्दर दासियों वाली थी ।उसने एक दिन गवाह से रूपवान पकड़े गये चोर को देखा और आसक्त हो गयी और अपना स्वामी बनाने के लिये प्रयत्न करने लगी उस समय श्यामा पर आसक्त एक सेठ - पुत्र प्रतिदिन हजार दिया करता था वह उस दिन हजार की थैली से उसके घर पहुंचा श्यामा हजार की थैली लेकर रोने लगी क्या बात है  ? पूछने पर बोली स्वामी यह चोर मेरा भाई है नगर कोतवाल ने कहा है कि हजार मिलेगा तो छोड़ दूंगा सेठ पुत्र ने उसे हजार देकर छुड़ाया और अन्ततः सेठ पुत्र ही सूली पर चढ़ाया गया। 
उस समय से श्यामा किसी दूसरे के हाथ से कुछ ग्रहण कर उसी के साथ रमण करती थी वह सोचने लगा यदि वह किसी दूसरे पर आसक्त हो गई हो तो यह मुझे भी मरवाकर किसी दूसरे के साथ रमण करेगी यह अत्यंत मित्र द्रोही है मुझे चाहिये कि यहां रहकर शीघ्र भाग जाऊँ लेकिन हां  जाते समय खाली हाथ नहीं जाउँगा इसके गहनों की गठई लेकर जाऊँगा यह सोच बोला भद्रे ! हम पिंजरे में बन्द मुर्गो की तरह नित्य घर में ही रहते हैं एक दिन उद्यान - कीड़ा के लिये चलें उसने 'अच्छा ' कहकर स्वीकार किया और सब खादय - भोजन सामग्री तैयार करा,सभी गहनों से अलंकृत हो उसके साथ पर्दे वाली गाड़ी में बैठ उद्यान की गई  
उसने उसके साथ खेलते हुए ' अब मुझे  भागना चाहिये सोच उसके साथ रमण करते हुए ही तरह ,उसे कनेर के वृक्षों के बीच ले जा , उसका आलिंगन करने के बहाने , उसे दबाकर बेहोश कर दिया फिर उसके सब गहने उतार , उसी की ओढ़नी में गठरी बांध , उन्हें कांधे पर रख , बाग की दीवार लांध भाग गया और अन्ततः वह गणिका हतभागिनी हुई। [49]
वाराणसी की सुलसा नामक गणिका की कथा भी ऐसी ही हैं सुलसा नगर की  शोभा कही गयी है जिसकी पांच सौ दासियां थी वह एक रात्रि के लिये हजार शुल्क लेती थी सुलसा अत्यंत विचक्षण और पण्डिता थी जिस डकैत के साथ सुलसा आसक्त थी उसने एक दिन उसके अलंकरणों को ले भागने की साजिश की  
डकैत ने सुलसा से कहा -- भद्रे ! जिस दिन राज पुरूष मुझे पकड़े लिये जा रहे थे--- उस दिन मैनें बलि चढ़ाने के लिये वृक्ष देवता को कहा है जो पर्वत पर अधिष्ठित है आवो , मेरी इच्छा पूर्ण करो -- 
दोनों जब पर्वत पर चढ़े तो डकैत ने कहा ---- मैं यहां बलि चढ़ाने नहीं आया हूँ ---- तुझें मारकर तेरे गहने ले जाने के लिये आया हूँ  
सुलसा ने कहा ---- स्वामी मुझें क्यों मारते हो मैने तुम्हारे लिये ही हजार लेना छोड़ दिया ये सब गहने तुम्हारे हैं -- इन्हें ले लो- मेरा प्राण छोड़ दो , किन्तु डकैत ने कुछ नहीं माना  
अन्ततः सुलसा की विचक्षणता उत्पन्न हुई उसने सोचा यह मुझे जीवित नहीं छोड़ेगा अतः पहले इसे प्रपात से गिराकर मार दूं  
सुलसा ने कहा ----- मेरा कोई नहीं है , आओ मैं तुमसे गले मिल लूँ , और तुम्हारी प्रदक्षिणा कर लूँ  
चोर ने रहस्य समझा नहीं और सुलसा को गले लगाया सुलसा ने प्रणाम करने की तरह गयी और चोर को पीछे से दोनों हिस्सों में पकड़कर प्रपात के नीचे फेंक दिया [50] 
उपयुक्त दोनों उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि जातक युग की गणिकाए प्रथमतः बहुतों का सम्पर्क नहीं चाहती थी वह अपने मनोनुकूल व्यक्ति को ही चाहती थी। और उसके साथ रमण कर आनन्दमय जीवन यापित करती थीं वाराणसी में एक सौभाग्यवान गणिका थी सेठ - पुत्र प्रतिदिन उसे हजार देकर अनवरण उसी के साथ रमण करता अतिकाल होने के कारण वह एक दिन बिना रुपया के गया गणिका बोली ---हजार लाये
सेठ - पुत्र ने कहा , विकाल हो जाने के कारण आदमियों को विदा कर अकेला आया हूँ कल तुझे दो हजार दूंगा वह बोली --- स्वामी हम गणिकाएं है हमारे लिये हजार कोई खेल नहीं है जायें हजार लायें सेठ पुत्र के बार बार कहने पर भी वह मान सकी और अन्त में दासियों के द्वारा बाहर कर दिया  
जब सेठ पुत्र के मित्र राजा ने सुना तो उसने प्रव्रजित सेठ - पुत्र को लिवा लाने की आज्ञा दी लेकिन जब वह लाने गयी तो वह नहीं लौट सका [51]  
एक दूसरी गणिका काली थी वह भी एक दिन के लिये हजार लेती थी तुण्डित नाम का उसका भाई शराबी तथा जुआरी था एक दिन वह धूत में हार गया और वस्त्र तक गवां कर एक अंगोछा पहने घर लौटा काली ने दासियों को आज्ञा दी कि इसे गर्दन पकड़ कर बाहर निकाल दो वह दरवाजे से लगकर रोने लगा  
प्रतिदिन आने वाले सेठ - पुत्र ने तुण्डित से रोने का कारण पूछा रोने के कारण जानकर उसने उसे आश्वस्त किया और काली के पास गया और पूछा तुमने भाई के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया
उसने कहा -- यदि तुझें प्रेम है तो तू दे  
उस वेश्या के घर यह प्रथा थी कि हजार में से पाँच गणिका के होते थे और पाँच सौ वस्त्र तथा गन्धविलेपनादि के लिये होते थे आने वाले आदमी उसके घर से कपड़े ले , पहन , रात भर रह , अगले दिन लौटते समय अपना ही वस्त्र पहन कर लौटते इसलिये उस सेठ पुत्र ने उसका दिया वस्त्र पहन अपने वस्त्र तुण्डित को दे दिये  
काली ने भी दासियोंको आज्ञा दी ----- कल जब यह जाने लगे तो इधर - उधर दौड़कर लूट मचाने की तरह उसके कपड़े फाड उसे नंगा कर दो दासियों ने वैसा ही किया और अन्त में सेठ पुत्र अपनी अवस्था पर पश्चाताप करने लगा [52] 
इस प्रकार जातकों में वर्णित गणिका जीवन का चित्र स्पष्टतः प्रत्याप्य है गणिकाएं अपने रूप और वर्ण पर ही जीती थीं सामान्यतः धनी व्यक्ति तथा राजा ही गणिकाओं के पास जाते थे [53]  गणिकाएं ऐश्वर्य सम्पन्न होती थी और विलासिता के साथ परिचारिकाओं से घिरी रहती थी [54] गणिकाओं का सम्बन्ध संगीतज्ञों से घनिष्ठ होता था [55]  
सामान्यतया गणिकाएं हीन दृष्टि से नहीं देखी जाती थीं जैसा कि गामणीचण्ड से गणिका मुक्त होकर बात करती है और राजा के पास सन्देश सम्प्रेषण भी करती है नीचकर्म ,[56]  गणिकाघर[57] किलिट्ठ[58] दुरित्थी , कुम्भदासी [59] आदि विशेषण जो गणिकाओं के लिये प्रयुक्त हुए हैं उनसे गणिकाओं के अशोभन कर्म के प्रति घृणात्मक भावना व्यक्त होती है  
सामान्य गणिकाओं का नैतिक स्तर तो सामाजिक दृष्टि से अधः पतित था किन्तु सुलसा , सामा , अम्बपाली , सालवती आदि गणिकाओं का स्तर ऊँचा था क्योंकि ये गणिकाएं विक्षणता तथा कलात्मकता से अनुस्यूत थीं समाज में इन्हें घृणा की अपेक्षा सद्भवना ही मिलती थी  
जातक युग में गणिका - संस्थानों की उत्पति कैसे हुई , कहा नहीं जा सकता , किन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि यह संस्था उस समय महत्वपूर्ण थी गणिकाओं की अस्तित्व - संस्थिति संभवतः राज्यगौरव की वृद्धि हेतु हुई होगी क्योंकि जातक युग की गणिकाओं में स्वतंत्रता तथा प्रभुता - सम्पन्नता देखी जाती है जातक युगीन गणिकाओं में स्वाभिमान की पूर्णता तथा वैभव सम्पन्न जीवन व्यतीत करने की भी क्षमता हम देखते हैं वैधव्य नारी जीवन का अभिशाप है । वैदिक काल से लेकर जातक युग तक विधवा स्त्रियों की अवस्था संतोषजनक प्रतीत नहीं होती है उत्तर वैदिक काल में तो विधवाओं की स्थिति और अधिक चिन्ताजनक तथा शोचनीय हो गयी थी जातक युग में विधवा जीवन व्यतीत करने का अधिकार था या उन्हें अपने पति के साथ ही सती हो जाना पड़ता था निश्चयतः नहीं कहा जा सकता है किन्तु सती होने का एक भी दृष्टान्त उपलब्ध नहीं होता ऐसा लगता है कि उस समय सती प्रथा नहीं थी
जातक युग में विधवाओं की अवस्था प्रतिहत एवं योग्य थी किन्तु यहां यह ध्यातव्य है कि विधवाओं का पुनर्विवाह जातक युग में होता था और इसमें कोई प्रतिबंध नहीं था [60]  विधवाओं को सम्पति का अधिकार था या नहीं पूर्णतः या निश्कलंक नहीं कहा जा सकता एक वृद्ध व्यक्ति के दिवंगत होने पर उसकी युवती पत्नी ने पुनर्विवाह कर लिया और अपने पति - धन का पूरा उपयोग किया और उसका किंचित् अंश भी पुत्र को नहीं दिया  [61] पैतृक धन जो होता था उसका एकमात्र अधिकार स्त्रियों को ही था  [62] 
जातकों में भिक्षुणियों के जीवन का भी चित्र मिलता है सामान्यतः सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन से विपण्ण एवं संत्रस्त होकर प्रत्येक नारी भिक्षुणी संघ की शरण लेती थी ये भिक्षुणियां भिक्षा से ही अपना जीवन निर्वाह करती थीं ये भिक्षुणियां विचक्षण तथा वैदुष्य पूर्ण होती थीं और पण्डित भिक्षुओं के साथ साहचर्य स्थापित करती थीं [63]  
कभी - कभी जब भिक्षुणी अपनी तपस्विता से ऊब जाती थीं तो पुनः प्रत्यावर्तित होकर गृह पत्नी के समान जीवन यापित करती थीं  [64] कभी - कभी पति पत्नी दोनों तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे और अलग पर्णशाला बनाकर रहते थे [65] 
भिक्षुणियों के प्रति सामान्य जनता में कोई प्रतिकूल भावना नहीं थी सामान्यतः कहा जा सकता है कि जातक युग में नारियों की अवस्था सन्तोषजनक और सुखमय थी नारियों को भी अपने जीवन में पूर्ण स्वतंत्रता थी और अपने जीवन में पति - साहचर्य को शोभन तथा प्रीतिकर मानती थीं किन्तु यह कहा जा सकता है कि नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण जातक युग में वैदिक युग एवं उत्तर वैदिक युग की अपेक्षा पूर्णतः परिवर्तित हो गयी थी  

शोध निबंध,डॉ. सुनीता सिन्हा

शिक्षिका,डी  वी,पब्लिक स्कूल ,
बिहारशरीफ़नालंदा. बिहारशरीफ़, नालंदा.
पेज सज्जा  डॉ. मधुप रमन 
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सन्दर्भ 

[1] जा जि० 4 पृ 35 गा 54 

[2] जा जि० 6 पृ 365 

[3] जा जि० 6 पृ 563 

[4]  जा जि० 5 पृ 103 गा 321 

[5]  जा०  जि पृ 105 

[6]  जा०  जि 1   पृ 457

[7]  जा०  जि 2    पृ 117 

[8]  जा०  जि 6    पृ 199  

[9]  जा०  जि 5     पृ 426 -7 

[10] जा०  जि 1      पृ 205 

[11]  जा०  जि 5     पृ 265  गा 1145 -8 

[12] जा०  जि 1     पृ 134   

[13] जा०  जि 2     पृ 226  गा ० 163  

[14]  जा०  जि 6     पृ 364    

[15]   जा०  जि 3    पृ   137    

[16]  जा०  जि 5   पृ   425   

[17]  जा०  जि 1   पृ   297   

[18]  जा०  जि 6   पृ   199   

[19] जा०  जि 3   पृ   93   

[20]  जा०  जि 4   पृ   99  गा ० 24   

[21]  जा०  जि 2   पृ   138  गा ० 96 

[22] जा०  जि 6   पृ   160

[23]  जा०  जि 2   पृ 115 गा ० 80 

[24] जा०  जि 4   पृ 45-49 

[25] जा०  जि 5   पृ 288 

[26] जा०  जि 5   पृ 437 

[27] जा०  जि पृ   293 -294 

[28] जा०  जि पृ   296

[29] जा०  जि पृ   453

[30] जा०  जि पृ   114

[31] जा०  जि पृ   499

[32] जा०  जि पृ   221 गा ० 123 

[33] जा०  जि पृ 29

[34] जा०  जि पृ   590 गा ० 2443 

[35] जा०  जि पृ   590  गा ० 2444-7

[36] जा०  जि पृ   202  गा ० 31

[37] जा०  जि पृ   215 

[38]  जा०  जि पृ   156 

[39] जा०  जि पृ 204

[40] जा०  जि पृ 302 गा ० 37

[41] जा०  जि पृ 23 गा ० 105

[42] जा०  जि पृ 21

[43] जा०  जि पृ 291

[44] जा०  जि पृ 248

[45] जा०  जि पृ 328

[46] जा०  जि पृ 377

[47] जा०  जि पृ 302,301

[48] जा०  जि पृ 380

[49] जा०  जि पृ 57-63 गा ० 69 -72

[50] जा०  जि पृ 435 गा ० 18 -26

[51] जा०  जि पृ 475 गा ० 78 - 87

[52] जा०  जि पृ 248-9 गा ० 106

[53]  जा०  जि पृ 294  

[54] जा०  जि पृ 199  

[55] जा०  जि पृ 384

[56] जा०  जि पृ 60

[57] जा०  जि पृ 249

[58] जा०  जि पृ 436

[59] जा०  जि पृ 228 गा ० 1001

[60] जा०  जि पृ 225

[61] जा०  जि पृ 225

[62] जा०  जि पृ 494 गा ० 1748

[63] जा०  जि पृ 93

[64] जा०  जि पृ 427

[65] जा०  जि पृ 94,383

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