जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन,रूढ़ समाजिक प्रथाओं का विरोध एवं जातक युग में सामाजिक समता तथा दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास : शोध निबंध

 शोध निबंध 

जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन,रूढ़ समाजिक प्रथाओं का विरोध एवं जातक युग में सामाजिक समता तथा दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास
शोध निबंध, डॉ. सुनीता सिन्हा.
शिक्षिका, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, बिहारशरीफ़, नालंदा. 

सामाजिक जीवन एवं जातक
किसी भी युग के सांस्कृतिक जीवन के विवरण के लिए कथा - साहित्य के महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती । कहानियाँ समाज का प्रतिबिम्ब होती है । इस दृष्टिकोण से जातक कालीन सांस्कृतिक जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए जातकों  की बड़ी उपयोगिता है । खुददक - निकाय में समाविष्ट 547 कहानियों का संग्रह जातक है । जातक की कहानियाँ बुद्धकालीन समाज में प्रचलित थी । बौद्ध भिक्षुओं ने इन्हें भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनाओं से संबद्ध कर अपने उपदेशों के प्रचार योग्य बना लिया ।
जातक कथाओं में भारत के सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक तथा प्रशासनीक विकास -क्रम की एक महत्वपूर्ण अवस्था का प्रमाणिक एवं रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है । यह युग अपनी अनेक विशेषताओं , जैसे बुद्ध द्वारा रूढ़ समाजिक प्रथाओं का विरोध एवं सामाजिक समता तथा दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास नवीन धर्म - सम्प्रदायों का उदय ,सन्यास जीवन की व्यापकता ,नगर जीवन का अभ्युदय ,उद्योग - धंधों की प्रगति इत्यादि के कारण महत्वपूर्ण माना गया है । इस युग के सांस्कृतिक इतिहास पर कार्य भी पर्याप्त किए गए हैं । 
 वर्ण व्यवस्था : प्राचीन भारत की सामाजिक संरचना मूलतः जाति - व्यवस्था पर निर्भर है । जाति - व्यवस्था को हम भारतीय प्राचीन समाज की न्यष्टि कह सकते हैं । प्राचीन काल में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद ये चार वर्ण प्रमुख थे । [1]' इन चारों वर्षों में समान वर्ण के स्त्री , पुरूष से उत्पन्न सन्तान भी माता - पिता के ही वर्ण में अभिज्ञात होती थी । जन्मगत वर्ण और कर्मगत वर्ण की व्यवस्था आगे चलकर दृष्टिगत होती है । 
जातक युग में ब्राह्मणों का समाज में मुख्य स्थान था और यज्ञपुरोहित के रूप में उन्हें सभी सुविधाएं प्राप्त थी । [2] उस समय समाज में दो तरह के ब्राह्मण थे 
1 .शुद्ध तथा . 
2 सांसारिक ।
ब्राह्मणों का स्थान एवं उनके कर्म :  शुद्ध ब्राह्मण वही होता था जो युवा होने पर उपाध्याय के पास जाकर वेदों का अध्ययन करता था , गृहस्थ जीवन बिताता था और जीवन के पश्चकाल में तपस्वी का जीवन व्यतीत करने के लिए अरण्यवास करता था । ब्राह्मण का यही सच्चा स्वरूप उस समय विद्यमान था किन्तु सभी ब्राह्मण ब्राह्मणत्व के यथोचित नियमों का परिपालन नहीं कर पाते थे ,और यह स्वाभाविक भी है । जो ब्राह्मण सच्चे तथा तपस्वी का जीवन व्यतीत करते थे वे यज्ञ करते थे । जो ब्राह्मण सच्चे अर्थ में अपना शुद्ध जीवन व्यतीत करते थे उन्हें समाज में पूरी प्रतिष्ठा मिलती थी । 
यद्यपि जातकों में खस्तियों को ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक महत्ता दी गयी है तथापि ब्राह्मण धार्मिक होने के कारण पूज्य थे । ब्राह्मण को राजाओं तथा प्रजाओं की आरे से दान मिलता था । ब्राह्मण आदर के साथ भोजन के हेतु आमंत्रित भी किये जाते थे और तदुपरान्त उन्हें दक्षिणा दी जाती थी । 
 ब्राह्मण अजेय तबा अबध्य थे । वे कर मुक्त भी थे । 
जातकों में देशानुसार भी ब्राह्मणों के भेद किये गये हैं । कुरूपन्थाल के ब्राह्मण अपनी जाति तथा गौरव के प्रति अवस्थित रहते थे । सतधम्म जातक , मंगल जातक तथा महासुपिन जातक में उदीष्य ब्राह्मण की चर्चा आयी है जो अपने गौरव के प्रति निष्ठावान दृष्टिगत होते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर पश्चिम देशों में रहने वाले ब्राह्मण आचरण धर्म तथा शील की दृष्टि से पवित्र और श्रेष्ठ माने जाते थे और जो पूर्व देशों में रहते थे वे सांसारिक माने जाते थे क्योंकि वे ब्राह्मणोचित कर्मो की उदारता को विरहित रहते थे । 
सांसारिक ब्राह्मणों के स्वरूप का वर्णन हमें दस ब्राह्मण जातक में मिलता है । [3] ' इस जातक में सांसारिक ब्राह्मणों के अनेक विध कर्तव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है - तिकिच्छकसमा , परिचारकसमा , निम्गाहकसमा . खानुपातकसमा , वाणिजकसमा , समा अम्मट्ठवेस्सेहि , गोधातकसमा , समागोपानसादेहि,जुद्धका ,महामजनसमा । ब्राह्मणों के उपयुक्त कर्म वस्तुतः घृणित प्रतीत होते हैं और एवं विध कर्म करने वाले केवल जन्म से ब्राह्मण होने के कारण ब्राह्मण नहीं कहे जा सकते हैं । क्योंकि शीलवान बहुश्रुत और मैथुन धर्मविरहित ब्राह्मण ही ब्राह्मण की पदवी पाने का अधिकारी हो सकता है । 
महासुपिन जातक [4 ] ' के अनुसार ब्राह्मण राजाओं के द्वारा यज्ञ कर्म सम्पादन के लिये आमंत्रित होते थे । जब कभी राजा दुःस्वप्न देखता था तो वह ब्राह्मण को बुलाता था । ब्राह्मण उसे सब्बचतुक्क यज्ञ करने के लिये उत्प्रेरित करते थे । [5] जातको में ब्राह्मण सुपिनपाठक तथा भविष्यवक्ता के रूप में विशेषतः चित्रित किये गये है । ब्राह्मण नवजात शिशु के अंगलक्षणों को देखकर भूत भविष्य और वर्तमान में घटने वाली घटनाओं का न्यायिक कथन करते थे ।[6] 
उम्मदन्ती जातक में एवंविध ब्राह्मणों के स्वरूप का बोध होता है जो अपने कर्म में कुशल होते हैं । इसके अतिरिक्त भी ब्राह्मण जादूगर का कार्य करते थे । एक स्थान पर एक ब्राह्मण असि की अच्छाई जानकर कहता है कि यह असि शुभ लक्षणों वाली है और यह भाग्यदायक है । [7 ] दूसरी जगह हम उस ब्राह्मण का दर्शन पाते हैं जो मूषकों द्वारा भक्षित वस्त्रों का दुःस्वप्न देखता है ।[8 ] उस समय के ब्राह्मण नक्खरतयोग [9 ]' का अभ्यास करते थे जिन्हें ' मिच्छाजीवा ' की संज्ञा दी गयी है।
उस समय के ब्राह्मण वैश्य कर्म भी करते थे जिसके अनेकशः उल्लेख जातकों में मिलते हैं । ब्राह्मण कृषि कर्म भी करते थे , जिन्हें कस्सक ब्राह्मण की संज्ञा दी गयी है । उरग जातक[10 ] में यह उल्लेख आया है कि एक ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ खेत में जाता है और भूमि कर्षण करता है जबकि उसका पुत्र तम्बाकू को संचित कर जलाता है । 
एक दूसरे जातक [11  ] में एक दरिद्र ब्राह्मण एक वृषभ के कालकवलित हो जाने के कारण कृषि कर्म में अक्षम हो जाता है । कभी - कभी ये कस्सक ब्राह्मण अधिक समृद्ध हो जाते थे और उनके पास 1000 करिस जमीन तक हो जाती थी । जातकों में महाशाल ब्राह्मण का बहुधा उल्लेख आया है ।[12]लेकिन ब्राह्मणों को इतनी 
समृद्धि कहां से आ जाती थी -- इसका निर्धारण करना असंभव है । 
ब्राह्मण वाणिज्य कर्म भी करते थे । ये कभी साधारण विक्रेता [13 ]के रूप में तो कभी बहुत बड़े सेठ के रूप में होते थे । [14] ब्राह्मण लोग शिकारी,[15] तक्षक [16] ,गडेरिया [17 ].धानुष्क [18]आदि के कर्म भी करते थे । इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण लोग अन्य लोगों की भाति अपनी जीविका के निर्वहण के लिये जो व्यवसाय चाहते थे , अपना लेते थे । 
ऐसा लगता है कि उस समय के ब्राह्मण अपनी वंशगत महिमा को भूल चुके थे और ब्राह्मणोचित यज्ञीय एवं अध्यापकीय कर्मों को छोड़कर जीवन यापन के लिये कोई भी कर्म कर सकते थे ,जैसा कि जातकों से पूर्णतया स्पष्ट है । 
क्षत्रियों का स्थान ही सर्वोपरि :  वैदिक साहित्य तथा श्रेष्य साहिम्य में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि रहा है , किन्तु बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों का स्थान ही सर्वोपरि दृष्टिगत होता है । शायद ब्राह्मण वादी व्यवस्था को न्यून कर सामाजिक समरसता लाने का यह सार्थक प्रयास था।   क्षत्रियों  तथा ब्राह्मणों के मध्य अपनी श्रेष्ठता के लिए सदैव संघर्ष की स्थिति बनी होती थी। क्षत्रिय सर्वथा अपनी श्रेष्ठता के उद्घोष के लिये तत्पर रहते थे । क्षत्रियों की कोई निम्नजातीय व्यक्ति नाम लेकर नहीं बुलाता था । गंगमाल जातक [19 ] में गंगमाल नामक नापित उदय को कुलनाम से जब पुकारता है तो उसकी मां उस पर संकुद्ध हो जाती है । और कहती है कि इस निग्नकुलीन नापित को अपने अस्तित्व का भी पता नहीं है । यह पृथ्वंश्वर क्षत्रियवंशोत्पन्न पुत्र को ब्रह्मवर्त कहता है । क्षत्रिय ब्राह्मणों की अपेक्षा अपने जातीय गौरव के प्रति पूर्णतः सतर्क रहते थे । उदाहरण के लिये राजा अरिन्दम अपने पुरोहित पुत्र को स्पंनजन्मा ब्राह्मण कहता है -ब्राह्मणों हीनजत्थो । [20 ] और हीनजत्थो [21] और अपने को असंभिन्नखत्तियवंसजातो कहता है । क्षत्रिय अपनी जातीय शुद्धता के प्रति विशेष अवहित रहते थे , क्योंकि क्षत्रिय और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न पुत्र सच्चा क्षत्रिय नहीं हो सकता था । 
जाति के सम्मान में भी क्षत्रिय का नाम सर्वप्रथम जातकों में आता है । यथा - खत्तिया ब्राह्मण , वेस्सा सुद्धता चण्डाल - पुक्कसा ।[21 ] इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध लेखक ब्राह्मणों के प्रति कुत्सित भावना रखते थे और शासक वर्ग क्षत्रियों के प्रति उत्कृष्ट भावना का परिज्ञापन करते थे । वैदिक युग से प्रवर्तित महाभारत युग तक ब्राह्मण का स्वरूप अक्षुण्ण रहा , किन्तु जातक युग में ब्राह्मण के स्वरूप में अस्पृश्य परिर्वतन हो गया । ब्राह्मण वर्ण को पतित और नीच कल्प जाने लगा तथा क्षत्रिय वर्ण को सर्वश्रेष्ठ वर्ण की संज्ञा दी गयी ।
पेज ५ जातकों में ही नहीं समस्त बौद्ध ग्रन्थों में ब्राह्मणों के प्रति प्रतिहिंसा घृणा की भावना पराकाष्ठा पर पहुंच दृष्टिगत होती है । ऐसी प्रतीति होता है कि ब्राह्मण - क्षत्रिय संघर्ष में ब्राह्मणों की विजय ने क्षत्रियों के मन में कुत्सित प्रतिहिंसा की भयावह अग्नि प्रज्वलित कर दी थी । साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों में बौद्धों का पूर्णतः विरोध किया था , जिसे परिणामस्वरूप बौद्धों  का ऐसा आकोश सर्वत्र दृष्टिगत होता है । अतः निःशंकरतः कहा जा सकता है ज्ञान और परमशिव निर्वाण का अधिगम करके भी बुद्ध इर्ष्यात्मक  भावना का सर्वथा परित्याग नहीं कर पाये थे । 
मतमस्तक जातक , नंगुट्ठ जातक , कोसिय जातक , राध जातक , सतधम्म जातक , उच्छिट्ठभस्त जातक , रूहक जातक , चुल्लिघनु जातक , सत्तुभत्त जातक , उद्धालक जातक तथा महाकपि जातक में ब्राह्मणों के प्रति आकोश की भावना असीम हो गयी है । ब्राह्मणों के सम्बन्ध में ऐसी अनेक गाथाएँ जातकों में निबद्ध की गयी है , जिनसे इस वण की हीनता व्यक्त होती है । उस काल में ऐसा कोई कुकर्म या दुष्कर्म नहीं था , जो ब्राह्मणों के द्वारा न किया गया हो ।
क्षत्रिय - वर्ण : किन्तु क्षत्रिय - वर्ण के सम्बन्ध में ऐसी कोई गाथा जातकों में दृष्टिगत नहीं होती जिससे उस वर्ण की अधोभावना का प्रकटीकरण हो सके । जातकों में ब्राह्मणों को अधः पतित प्रमाणित किया गया है । जातकों में वस्तुतः ब्राह्मणों के उस महत्व को निर्मूलित किया जा रहा था जो महत्व इस वर्ण को वैदिक काल से अवाप्त था और जिसके संरक्षण में ब्राह्मण तत्पर थे । 
किन्तु जातक युग में ऐसे भी ब्राह्मण थे , जिनका विरोध करके बौद्धों का जीना असम्भव था । अतः शील रहित ब्राह्मणों को लेकर ही बौद्धों ने ब्राह्मणों पर आक्रमण किया । शीलवान एवं आचरण सम्पन्न ब्राह्मण को ही जातक युग में सम्मान मिला है । आचाररहित ब्राह्मण के ब्राह्मयत्व का पूरा विरोध जातकों में मिलता है । सुनख जातक में तो ब्राह्मण को कुत्तों  से भी निकृष्ट कहा है ।
जातक युग में बौद्धों की ओर से ब्राह्मणों का घोर विरोध कर उनके वर्चस्व को न्यून करने की भरसक कोशिश की गई। लेकिन इसके पीछे ब्राह्मणों की आचरणहीनता भी थी। वे उपेक्षित ठहराए गए बल्कि क्षत्रिय को सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में श्रेष्ठ भी ठहराया गया। वे वेदों के ज्ञानी भी थे तथा शास्त्रों के लिए तक्षशिला विश्वविद्यालय भी जाते थे।ब्राह्मणों के आदर में कमी हुई किन्तु पश्च काल में भयानक प्रतिक्रिया वश ही पुष्यमित्र शुंग काल में ब्राह्मणों का गौरव पुनः उपचित हो गया। [22]
जातक युग में क्षत्रिय वेदिक राजन्य के पर्याय होते हैं , क्योंकि क्षत्रिय वही समझा जाता था । जिसके पास ऐश्वर्य प्रभुत्व तथा सैन्यबल हो । 
वैश्य जाति : जातकों में वैश्य जाति का उल्लेख विरल रूप में प्राप्त होता है । जातक युगीन गहपतियों को ही वैश्य की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि ये ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बाद ही समाज में प्रतिष्ठित थे । गहपतियों के पास प्रभूत जमीन होती थी और राज्य दरबार में भी इनका पूरा सम्मान होता था । ब्राह्मण तथा अमात्य के साथ गहपति भी राजा के परिवार के साथ सर्वदा वर्तमान रहते थे ।[23]
अपनी जातीय उच्चता के कारण ये गहपति क्षत्रिय तथा ब्राह्मणों की भॉति अपने को अन्य जातियों से विशिष्ट मानते थे । उस समय एक कठिन नियम था कि गहपति अपने युवा - पुत्र के लिये अपनी ही जाति की लड़की लावे जो उच्च कुल परम्परा की हो ।[24] गहपति सरकारी तथा फलों को बेच कर  अपना जीवन यापन  करता था तो दूसरी ओर एक गरीब गहपति स्वयं तथा उसकी माँ नौकरी कर जीवन चलाते थे। [25]  
 कुटुम्बिक  गहपतियों के सदृश ही जातकों में कुटुम्बिक का उल्लेख मिलता है जो वस्तुतः गहपति का ही पर्याय प्रतीत होता है । [26 ] गहपतियों के सदृश ही कुटुम्बिक लोग नगर में रहते थे और ये धनी नागरिक होते थे । कुटुम्बिक नगर तथा गांव दोनों जगह रहते थे किन्तु अधिकांशतः ये लोग गांव निवासी ही थे । एक नगरवासी कुलपुत्र अपनी लड़की के लिये गांव निवासी कुटुम्बिक की लड़की का अन्वेषण करता है । कुटुम्बिक जो नगर में रहते थे धान्य विक्रय का कार्य करते थे । कभी - कभी ये समृद्ध व्यापार भी करते थे । [27] गांव में रहने वाले कुटुम्बिक कृषकों के स्वामी हुआ करते थे । 
व्यापारियों तथा शिल्पियों की भी जाति थी । [28] [29]ये अपने उन्नत व्यापार शिल्प के कारण अपनी अलग जाति का समाज में निर्माण कर चुके थे और उसके नियमन के लिये कुछ रीति रिवाज तथा नियम का निर्धारण भी कर चुके थे । कलाकारों की जाति भी उस समय वर्तमान थी । इससे स्पष स्पष्ट पता चलता है कि कर्मानुसार ही जाति का विभाजन बौद्ध युग में हुआ था , जन्म से नहीं । 
श्रम विभाजन की व्यवस्था के कारण ही इन कलाकारों की अलग जाति का निर्धारण हुआ क्योंकि इनका जीवन उद्योग - धधों के ऊपर ही निर्भर था । साथ ही इन कलाकारों में स्वकीय वर्ग चेतना भी विकसित हो गयी थी . परिणामतः अपने अपने कर्मानुसार इन लोगों ने अपनी जातियां स्थिर कर ली । इनके पूर्वज जो कार्य करते आ रहे थे - उन्हीं का क्रियान्वयन पार्श्वकालीन पीढ़ियों ने करना प्रारंभ कर दिया और इनकी पृथक जाति की मुहर समाज की ओर से भी दे दी गयी । 
आजीविकानुसार वर्षों में निम्नलिखित जातियां परिगणित की जा सकती है । 
तन्तुवाय : तन्तुवाय का महत्व समाज में अत्यधिक था । मनुष्य की तीन आवश्यकताओं में से वस्त्र की आवश्यकता की आपूर्ति तन्तुवायों से होती थी । काशी , कौडुम्बर आदि जनपदों के वस्त्रों की चर्चा जातकों में विशेष रूप से होती है । ये सूती , ऊनी तथा रेशमी वस्त्रों का निर्माण करते थे । [29] [३०] 
कुम्भकार : कुम्भकार का उल्लेख जातकों में बहुशः हुआ है । यह समाज का बहुत उपयोगी अंग था । जिन दिनों धातुओं के बर्तनों की प्रचुरता नहीं थी उन दिनो मृतभाण्डों की उपयोगिता समाज में अत्यधिक थी । कुंभकार चक के द्वारा मिट्टी के बर्तनों का निर्माण करता था । [30] [३१ ]
स्वर्णकार : [31][३२]स्वर्णाभूषणों के निर्मायक स्वर्णकारों की भी समाज में विशेष उपयोगिता थी । स्वर्णकार आभूषणों का निर्माण कर श्रृंगार के साधनों को तैयार करता था । विधुर जातक के अनुसार मणिकार अनेक प्रकार की मणियों की अमूल्य वस्तुओं का निर्माण करता था । राजा लोग मणियों की मालाएं पहनते थे । 
लौहकार : लौह के अस्त्र - शस्त्र एवं गृहोपयोगी तथा युदोपयोगी वस्तुओं का निर्माण लौहकार करता था ।[32 ][३३] लौहकारों का गांव हजार घरों वाला भी होता था । लौहकार धनी भी होते थे । लौहकार , पुरी , कुलहाशी , फरसा , सुई , फाल इत्यादि का निर्माण करते थे । लौहकारों के गांव से सूईयां तथा दूसरे लोहे के उपकरण तथा शस्त्र एवं नाना प्रकार के कर्मान्त बाहर जाते थे ।[33 ][३४ ] 
दन्तीकार : हाथी के दात के द्वारा वस्तुओं का निर्माण दन्तीकार करता था । हाथी दांत के खिलौने तथा दर्पण की मूठे विशेष रूप में बनायी जाती थीं ।[34 ][३५]
तक्षक : लकड़ी के कार्यो का सम्पादन करना तक्षक का कार्य था । जातकों में काष्ठ के घरों का निर्माण तथा कृषकों के लिए काष्ठ सम्बन्धी उपयोगी वस्तुओं का निर्माण तक्षक द्वारा किये जाने का उल्लेख जातकों में अनेकशः आया है.[35 ] [३६ ]  
नापित : [36] [३७ ]क्षौर कर्म का सम्पादन नापित करता था । इसकी उपयोगिता आज की तरह ही प्राचीन भारत में अधिक थी । सामान्यतया नापिल बाल बनाने , स्नान कराने एवं अलंकृत करने का कार्य करता था । नापित को जातक में हीन जन कहा गया है । 
गोपालक : जातकों में गोपालकों का उल्लेख भी प्रचुर हुआ है । इस जाति के लोग अपनी गायें तथा धनी व्यक्तियों के पशुओं को लेकर गोचरभूमियों में ले जाते थे और सायंकाल उन्हें स्वामियों के पास पहुँचा देते थे ।
नालकार : नालकारों तथा वेलकारों का उल्लेख जातकों में विशेष रूप से मिलता है । इस जाति के लोग समाज की उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते थे जिनमें टोकरी , चटाई आस्तरण आदि प्रमुख हैं ।[37] [३८ ] 
लुब्यक : यह जाति चिड़ीमारों की थी । लुब्धक पक्षियों तथा पशुओं को फसाने और उनका शिकार करने का कार्य करता था और उससे जो आय होती थी उससे जीविका निर्वाह करता था । 
केवट : मछलियों को पकड़कर विक्रय करना केवटों का कार्य था । समाज में मछलियों की खपत विशेष रूप से होती थी । अतः इनलोगों का उद्योग विकसित अवस्था पर था । इन्हें वालिसिक भी कहा जाता था । [38 ] [३९ ]
रजक और रन्जक : रजक समाज में रहने वाले व्यक्तियों के वस्त्रों के धोने का कार्य करता था तथा रंजक वस्त्रों क रंगने का कार्य सम्पादित करता था । उपयोगिता तथा सेवा की दृष्टि से रजकों एवं रन्जकों का स्थान जातक में महत्वपूर्ण दृष्टिगत होता है । 
मालाकार : जातकों में मालाकार तथा गन्धिक का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है । प्रत्येक मांगलिक अवसरों पर मालाकार पुष्प मालाएं गूथ कर राजा को तथा समाज के अन्य व्यक्तियों को देता था । विविध प्रकार के पुष्पों यथा कुकुध , कुटज , अकोल कच्चिकार , कर्णिकार , कणवेर , कोरण्ड , कोउविचार , किशुक , योधिय , बनमल्लिका , अनग . अनब्ध , भण्डी . रूचिर , भगिनी आदि का विक्रय करना इनका कार्य था । [39] [४० ]
 गन्धर्व : जातकों में गन्धों का उल्लेख सामाजिक उत्सवों के अवसर पर आया है । यह जाति संगीत तथा नृत्य कला में प्रवीण मानी गयी है । इनका कार्य गायन - वादन करना था । ये उत्सवों में सम्मिलित होकर संगीत द्वारा राजा महाराजों तथा सेठ - साहूकारों का मनोरंजन करना था । उस समय व्यावसायिक संगीतज्ञ भी होते थे जो सामाजिक उत्सवों में जाकर नृत्य गीतादि के द्वारा जीविका निर्वाह करते थे । 
भेरिवादक की भी चर्चा आयी है जो अपने पुत्र के साथ नक्षत्रोत्सव के उद्घोष के अवसर पर जाता है और समाजमण्डली में भेरि बजाकर प्रभूत द्रव्य अर्जित करता है ।[40 ] [४२ ]इसी प्रकार हम शंखधमक की चर्चा पाते हैं जो नक्षत्रोत्सव पर शंख बजाकर धन अर्जित करता था ।[41 ] [४३ ] ज्येष्ठ गन्धर्वो में गुस्तित [42 ][४४ ] तथा समा [43 ][४५ ] का भी नाम आया है जो राज्य दरबार में नियुक्त किये जाते थे । यहां यह अवधेय है कि इनकी जाति वंशानुगत निर्धारित थी । 
यायावरीय या घूमन्तु जातियों में नट , सर्पकार , मायाकार तथा कोदण्डदमक आदि परिगणित है । नट गांवों में अपनी स्त्री के साथ जाकर नृत्य - गीतादि से द्रव्य अर्जित करता था ।[44 ][४६ ] 
नटकुल भीख मांग कर भी अपनी जीविका चलाता था ।[45 ][४७ ] कठपुतली का नाच दिखाकर[46 ][४८ ] तथा खड़े बांस पर नृत्य दिखाकर [47][४९ ] ये लोगों का मनोरंजन करते थे । मायाकार नामक एक जाति भी थी जो जादू दिखाकर द्रव्य अर्जित करता था ।[48] [५० ]
सर्पकार : सर्पकार परिचमक जाति का होता था जो सर्वो को नचाकर और उस पर अपनी अधिकार शक्ति का प्रदर्शन करता था ।[49] [५१ ]एक सर्पकार मर्कट को औषधि पकड़ा कर उसे सर्प के साथ खेलने के लिए प्रेरित करता है और उसके द्वारा अपनी जीविका चलाता था ।
अतः हम देखते हैं कि रूढ़ समाजिक प्रथाओं का विरोध एवं जातक युग में सामाजिक समता तथा दलित वर्ग के उत्थान का प्रयास किया गया। वैदिक काल में ब्राह्मणों ने सामाजिक व्यवस्था के सोपान पर जिस तरह से अपने आप को स्थापित किया था उसमें उत्तरोत्तर गिराव आया। दूसरे अन्य जातियों की आवश्यकता को भी चिन्हित किया गया तथा उसे जरूरी स्थान समाज में दिलाने की सार्थक कोशिश की गयी। 
सुनीता सिन्हा ( सुनीता सिन्हा )
शोध निबंध, डॉ. सुनीता सिन्हा.
शिक्षिका, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, बिहारशरीफ़, नालंदा. 

सन्दर्भ 

1 . जा ० जि ० 6 पृ ० 185  

2 . जा ० जि 6 पृ ० 199 -866 

3 . जा ० जि ० 2 पृ ० 83 

4 . जा ० जि ० 1 पृ ० 343 

5 . जा ० जि ० 3 पृ ० 45 

6 . जा ० जि ० 6 पृ ० 199

7. जा ० जि ०  1  पृ ० 455.

8. जा ० जि  1  पृ ० 373.

9 . जा ० जि ० 1   पृ  257 

10 . जा ० जि ० 3  पृ ० 163

11.  जा ० जि ० 2  पृ ० 165

12. जा ० जि ० 1  पृ ० 140

13 . जा ० जि ० 2 पृ ० 15 

14 . जा ० जि ० 4   पृ ० 15 

15 . जा ० जि ०  2  पृ ० 200 

16 . जा ० जि ०  4  पृ ० 207 

17.  जा ० जि ० 3  पृ ० 401 

18 . जा ० जि ० 3 पृ ० 219 

19.  जा ० जि ० 3 पृ ० 452 

20 . जा ० जि ०  5 पृ ० 257 

21 . जा ० जि ० 1 पृ ० 326 

22 . जा ० जि  6 पृ ० 199 

23 . जा ० जि ० 1 पृ ० 152 , 470 

24 . जा ० जि ० 2 पृ ० 121 

26 . जा ० जि   3  पृ ० 139 

27 .  जा ० जि    2  पृ ० 267 

28  . जा ० जि    4  पृ ० 284 

29  . जा ० जि ०   1   पृ ० 356 

30  . जा ० जि ० 3    पृ ० 376 

31  . जा ० जि ० 6   पृ ०  276 

32  . जा ० जि ० 3 पृ ० 281 

33  . जा ० जि ०  6  पृ ० 199 

34  . जा ० जि ० 1 पृ ० 320 

35  . जा ० जि ० 2 पृ ० 18 , 405 

36  .  जा ० जि ० 3 पृ ० 451 - 52 

37  . जा ० जि ० 2 पृ ० 302 

38  . जा ० जि ० 1 पृ ० 210 - 482 

39  . जा ० जि ०  1 पृ ० 95 - 120 

40  . जा ० जि  1 पृ ० 283

41  . जा ० जि ० 1 पृ ० 284 

42  . जा ० जि ० 2 पृ ० 284 

43  . जा ० जि ० 3 पृ ० 187 गा  56 

44  . जा ० जि ० 3 पृ ० 507 

45  . जा ० जि ० 2 पृ ० 167 

46 . जा ० जि ० 5 पृ ० 16 गा ० 40 

47  . जा ० जि ० 1 पृ ० 430

48  . जा ० जि ० 4 पृ ० 495 गा ० 337 

49  . जा ० जि ० 1 पृ ० 370 


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